Tuesday, November 30, 2010

जवाब


पूछो आज सवाल और मै जवाब दूँगी
जैसे हर बार देती आई हूँ
आज रेशम में लिपटे हुए नही
आज यू मुलायम फूलो की तरह नही
आज थोड़े सच के ज़हर में डूबे
आज थोड़े कडवे कसेले से
आज शायद पसंद नही आयेंगे मेरे जवाब
आज शायद तुम तारीफ़ नही करोगे मेरे शब्दों की
आज नही भाएगी मेरी मुस्कान
आज नही कहोगे 'दोहराहो फिर से '
आज यू फक्र से महफ़िल में मेरा और अपना हमारा कहकर नही बताओगे
आज तो एक अनजान की तरह
फेरोगे मुझसे नज़र
और यू लौटते हुए घर
शायद कह भी दो
तुम बदल गयी हो
और मै कह दूँगी
आज मै नही बदली
बदले है बस जवाब, बस थोड़ी सच की जूठन से

Wednesday, November 24, 2010

फिर मै चल दूंगा


दो घडी सास तो लेने दो
फिर मै चल दूंगा
ज़रा अपनी यादो को यु बाँध लू अपने सामान के साथ
फिर मै चल दूंगा
मेरे नाम की गूँज जो अभी भी किसी कोने में मुझे ढूँढती है
उसका कुछ इंतजाम तो कर लू
फिर मै चल दूंगा
अभी तो शीशे पर बिखरी है मेरी हर सुबह जो ख़ास थी
अभी बाकी है हिसाब उस अजनबी पडोसी से उधार का
अभी तो हटाने हे परदे जो बेमेल से थे मेरी पसंद के
अभी तो ख़त्म करना है इंतज़ार दरवाजे पर किसी का
अभी तो फूल जो सुखाये थे किताबो के बीच ढूँढने है
अभी वोह नमी दीवारों को नए रंग की सुखानी है
ज़रा ये बंदोबस्त तो कर लू
फिर मै चल दूंगा

Saturday, November 13, 2010

तलाशी


मेरे कमरे में बिखरे सामन को देखकर
पहले सोचा होगा तुमने तलाश शुरू करू कहा से
फिर टटोलने लगे होगे अलमारियो को, कुछ पुराने कागजों की तलाश में
मेरे कल की तलाश में
फिर अनमने मन से कुरेदने लगे होंगे दीवारों पर लगी तस्वीरों को
जैसे ढूँढता है कोई चावलों के बीच किसी घुन को
यु एक कमरे से दुसरे कमरे में
कभी फर्श पर कभी छत पर देखा होगा भेद देने वाली नजरो से
फिर आवाज़ दी होगी पड़ोसियों को
पुछा होगा उनसे मेरा हितेषी बन मेरे बारे में
स्वर बदले होंगे फिर धमकी में
जब सम्भावनाये शून्य बनती जा रही होंगी
गुस्से से बंद किया होगा दरवाज़ा जाते वक़्त
बस एक बार पढ़ लिया होता मेरा आखरी ख़त फाड़ने से पहले
तो जवाब मिल जाते खुद और रोज़ यु तलाशी न लेनी पड़ती मेरे कमरे की

मासूमियत




यु मासूमियत से इस बार जब उससे शिकायत की होगी
उसे गुस्से से ज्यादा हसी आयी होगी उसपर
की किस कदर बस शब्दों को बदल दिया उसने
जिसे कभी आँखों की चुभन कहा
अब दिल की चुभन कह कर बात बदल दी

Saturday, November 6, 2010

यू तो


यू तो रास्ता अकेले ही तय करना है
फिर किस रहगुज़र को तलाशती रहती है आंखे
यहाँ तो उस गली से गुज़रना है जहा अपना साया भी सोचता है
साथ देने से पहले
फिर किस आरजू में मुड मुड कर देखती हु
और सोचती हु कोई आवाज़ देगा और कहेगा
अकेले कैसे जाने दू इन सुनसान सी गलियों में
और यू बस बिना कुछ सुने चल दे मेरे साथ
बिन बातो के ही यू ही कट जाये सफ़र
और फिर लगे न जाने कितने बातो को कर चुके हम
और सफ़र लम्बा भी हो तो फिर भी कोई शिकवा न हो
न उससे न खुद से और ना ही मंजिल से
मालूम है मुझे
यू तो रास्ता अकेले ही तय करना है
फिर क्यूँ कदम थम से जाते है जब सुनाई देने लगती है कुछ अनसुनी आहटे