Wednesday, September 15, 2010

ज़िक्र मेरा


ज़िक्र मेरा हो जब भी
बस इतना कह देना
वो मौजूद थी यही कही आस पास
मेरे कदमो के निशा न भी हो तो क्या
मुझसे मुलाकात का कोई ज़िक्र करता न भी हो तो क्या
मेरे होने का एहसास कही न कही सासे लेता तो होगा
यही काफी है मेरे लिए
और फिर एक बार अगर
ज़िक्र मेरा हो तो
बस इतना कह देना
वो गुजरी थी कभी शायद किसी सर्द से मौसम में
और धुंध में कोई शायद उसे पहचान भी ना पाया हो

Monday, September 6, 2010

ऐसा लगता है


यू हम भी बिखरे बिखरे से रहते थे
और पता भी नही चला की ज़िन्दगी भी हिस्सों मे बटती चली गयी
हम बेहिसाब इस उम्र को खर्च करते चले गए
और पता भी नहीं चला कब इस उम्र को पास रखने की ख्वाहिश भी चली गयी
कैद खुद को पाते है अब अजीब हालातो मे
और इस कदर बैचैन से हो जाते है
की अब लगता है कि
वह वक़्त भी आया था कभी, जब उड़ने को पंख नए मिल जाते थे
और आज सिर्फ आसमा है सामने
और ना जाने कब ज़मी मे चलना सही लगने लगा
उड़ने की बाते ऐसा लगता है पुरानी कित्ताबो मे कही चली गयी