आज जाने क्यूँ नमी कुछ ज्यादा सी लगी आँखों की समंदर में
क्यूँ आज भीगी भीगी पलके दिन भर बारिश का सा एहसास दिलाती रही
और यु ही धीमी मुस्कराहट खुद को समटने की कोशिश में लगी रही
ये अजीब सी कशमकश थी
आज जाने क्यूँ यु ही मैंने समेट लिया अपना सामान
और जुटाने लगी यादो को जैसे फिर कभी नही याद आएंगे
अगर इस बार उन्हें सजो कर नही रखा
बंद किया सारी खिडकियों को एक एक करके
कसकर, जिससे बाहर की हवा भीतर की परतो को छू ना पाए
आज जाने क्यूँ यु हिसाब की पन्नो में ढूँढने लगी
उस गुज़रे वक़्त का लेन देन
हिसाब नही मिला कुछ तारीखों का
और इसी झुंझलाहट में पन्नो को फाड़ कर रख दिया किसी गुमनाम कोने में
आज जाने क्यूँ यु ही बस निकल कर बाहर उस चार दिवारी से
मन करने लगा उस गली से गुजरने का जिसमे जाने से अक्सर मना करते है लोग
और गुज़रते हुए उस गली से ये महसूस हुआ मेरी बैचनी कम होने लगी थी ....
संगीता जी,
ReplyDeleteआपकी ये नज़्म मुझे बहुत-बहुत अच्छी लगी....पर इसमें काफी गलतियाँ लगीं इसको लिखा बहुत अच्छा गया है पर तराशा नहीं गया.....मैंने एक कोशिश की है......मुलाहजा फरमाइए.......अगर कुछ गलत लगा हो तो माफ़ी चाहूँगा.......नववर्ष की ढेरों शुभकामनाओं के साथ|
आज न जाने क्यूँ
नमी कुछ ज्यादा सी लगी आँखों के समन्दर में
क्यूँ आज भीगी भीगी पलके,
दिन भर बारिश का सा एहसास दिलाती रही
और यूँ ही धीमी मुस्कराहट,
खुद को समटने की कोशिश में लगी रही
ये अजीब सी कशमकश थी
आज न जाने क्यूँ यूँ ही
मैंने समेट लिया अपना सामान
और जुटाने लगी यादो को
जैसे फिर कभी नही याद आएंगे
अगर इस बार उन्हें सजो कर नही रखा
बंद किया सारी खिडकियों को एक एक करके
कसकर, जिससे बाहर की हवा
भीतर की परतो को छू ना पाए,
आज न जाने क्यूँ यूँ
जिंदगी के पन्नो में ढूँढने लगी
उस गुज़रे वक़्त का लेन देन
हिसाब नही मिला कुछ तारीखों का
और इसी झुंझलाहट में पन्नो को
फाड़ कर रख दिया किसी गुमनाम कोने में
आज न जाने क्यूँ यूँ ही
बाहर निकल कर उस चार दिवारी से
मन करने लगा उस गली से गुजरने का
जिसमे जाने से अक्सर मना करते है लोग
और गुज़रते हुए उस गली से
ये महसूस हुआ मेरी बैचनी कम होने लगी थी
आज न जाने क्यूँ यूँ ही
thanks imran ji, aacha laga aapne behtar bana diya meri kavita ko...
ReplyDeletekuch shabd shayad apni jagah se hatna chahte the
is baar dekhna chahte the, bemail jab hote hai
to maayne badalte hai ya jazbaat