ज़िक्र मेरा हो जब भी
बस इतना कह देना
वो मौजूद थी  यही कही आस पास
मेरे कदमो के निशा न भी हो तो क्या
मुझसे मुलाकात का कोई ज़िक्र करता न भी हो तो क्या 
मेरे होने का एहसास कही न कही  सासे लेता तो होगा 
यही   काफी है मेरे लिए 
और फिर एक बार अगर   
ज़िक्र मेरा हो तो 
बस इतना कह देना
वो गुजरी थी कभी शायद  किसी सर्द से मौसम में
और धुंध में कोई शायद उसे पहचान भी ना पाया हो
संगीता अच्छी नज़्म है यह...तुम वाकई अब लेखक बनने की राह पर हो....मेरी शुभकामनाएं.
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