समेट लेती वह बूंद भी उसे
गर उसमे थोड़ी भी गुंजाइश होती बंध जाने की
यू ही वह बिखरी बिखरी सी न रहती
गर उसमे थोड़ी भी हसरत होती
थोड़ी सी भी बस सिमट जाने की
वह अलग थी सबसे या
उसकी दीवानगी को समझने की जरुरत नही समझी ज़माने ने
उससे पूछा जाता उसका ठिकाना
क्या बताती वह
जो हर बार हवा के साथ रुख बदलती थी अपना
वह तलाशती थी अपना वजूद सितारों के बीच आसमा में
और हम उससे कहते रहते थे
क्यूँ नही ढूढ़ पाती वह खुद को किसी भी ज़मी के आशियाने में
No comments:
Post a Comment