Saturday, April 2, 2011

मुझे रहने दो


मुझे रहने दो गुमनामी में
ये अँधेरे कभी उस उजाले से ज्यादा भाते है
जो उजाले साथ में लाते है शर्त , जागते रहने की....

मुझे खफा रहने दो
मनाने के झूठे बहानो से
ये टूटती उम्मीदों के सिलसिलो को बढ़ाते है....

किसको फ़िक्र है यहाँ जश्न की
हम तो हर नाकामयाबी में समझा लेते है
कुछ तो है जो सिर्फ अपना है
जिसे बाटना नही पड़ता,,,,,,

बदल रही है आरजू वक़्त के साथ
कभी जिद थी मुस्कुराने की
और आज जिद है महज़ जीने की .....

2 comments:

  1. संगीता जी,

    काफी दिनों बाद दिखी है आपके ब्लॉग पर कोई पोस्ट......शानदार लगी ये पोस्ट, खूबसूरत..... मुझे लगा यहाँ पर .....'हम तो हर नाकामयाबी में समझा लेते है' ......दिल या मन को समझा लेते हैं होना चाहिए था......बाकि सुन्दर था......प्रशंसनीय |

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  2. बहुत अच्छी पोस्ट, शुभकामना, मैं सभी धर्मो को सम्मान देता हूँ, जिस तरह मुसलमान अपने धर्म के प्रति समर्पित है, उसी तरह हिन्दू भी समर्पित है. यदि समाज में प्रेम,आपसी सौहार्द और समरसता लानी है तो सभी के भावनाओ का सम्मान करना होगा.
    यहाँ भी आये. और अपने विचार अवश्य व्यक्त करें ताकि धार्मिक विवादों पर अंकुश लगाया जा सके., हो सके तो फालोवर बनकर हमारा हौसला भी बढ़ाएं.
    मुस्लिम ब्लोगर यह बताएं क्या यह पोस्ट हिन्दुओ के भावनाओ पर कुठाराघात नहीं करती.

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