Thursday, December 30, 2010

आज जाने क्यूँ


आज जाने क्यूँ नमी कुछ ज्यादा सी लगी आँखों की समंदर में
क्यूँ आज भीगी भीगी पलके दिन भर बारिश का सा एहसास दिलाती रही
और यु ही धीमी मुस्कराहट खुद को समटने की कोशिश में लगी रही
ये अजीब सी कशमकश थी
आज जाने क्यूँ यु ही मैंने समेट लिया अपना सामान
और जुटाने लगी यादो को जैसे फिर कभी नही याद आएंगे
अगर इस बार उन्हें सजो कर नही रखा
बंद किया सारी खिडकियों को एक एक करके
कसकर, जिससे बाहर की हवा भीतर की परतो को छू ना पाए
आज जाने क्यूँ यु हिसाब की पन्नो में ढूँढने लगी
उस गुज़रे वक़्त का लेन देन
हिसाब नही मिला कुछ तारीखों का
और इसी झुंझलाहट में पन्नो को फाड़ कर रख दिया किसी गुमनाम कोने में
आज जाने क्यूँ यु ही बस निकल कर बाहर उस चार दिवारी से
मन करने लगा उस गली से गुजरने का जिसमे जाने से अक्सर मना करते है लोग
और गुज़रते हुए उस गली से ये महसूस हुआ मेरी बैचनी कम होने लगी थी ....

2 comments:

  1. संगीता जी,

    आपकी ये नज़्म मुझे बहुत-बहुत अच्छी लगी....पर इसमें काफी गलतियाँ लगीं इसको लिखा बहुत अच्छा गया है पर तराशा नहीं गया.....मैंने एक कोशिश की है......मुलाहजा फरमाइए.......अगर कुछ गलत लगा हो तो माफ़ी चाहूँगा.......नववर्ष की ढेरों शुभकामनाओं के साथ|

    आज न जाने क्यूँ
    नमी कुछ ज्यादा सी लगी आँखों के समन्दर में
    क्यूँ आज भीगी भीगी पलके,
    दिन भर बारिश का सा एहसास दिलाती रही
    और यूँ ही धीमी मुस्कराहट,
    खुद को समटने की कोशिश में लगी रही

    ये अजीब सी कशमकश थी
    आज न जाने क्यूँ यूँ ही
    मैंने समेट लिया अपना सामान
    और जुटाने लगी यादो को
    जैसे फिर कभी नही याद आएंगे
    अगर इस बार उन्हें सजो कर नही रखा

    बंद किया सारी खिडकियों को एक एक करके
    कसकर, जिससे बाहर की हवा
    भीतर की परतो को छू ना पाए,

    आज न जाने क्यूँ यूँ
    जिंदगी के पन्नो में ढूँढने लगी
    उस गुज़रे वक़्त का लेन देन
    हिसाब नही मिला कुछ तारीखों का
    और इसी झुंझलाहट में पन्नो को
    फाड़ कर रख दिया किसी गुमनाम कोने में

    आज न जाने क्यूँ यूँ ही
    बाहर निकल कर उस चार दिवारी से
    मन करने लगा उस गली से गुजरने का
    जिसमे जाने से अक्सर मना करते है लोग
    और गुज़रते हुए उस गली से
    ये महसूस हुआ मेरी बैचनी कम होने लगी थी
    आज न जाने क्यूँ यूँ ही

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  2. thanks imran ji, aacha laga aapne behtar bana diya meri kavita ko...

    kuch shabd shayad apni jagah se hatna chahte the
    is baar dekhna chahte the, bemail jab hote hai
    to maayne badalte hai ya jazbaat

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